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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 71 
देवयानी अमर्ष में आकर ऊपने पैर पटकती हुई कुटिया की ओर तीव्र गति से जा रही थी । आश्रम में रहने वाले सेवक सेविकाओं और शिष्यों ने जब देवयानी को क्रोधित होकर नागिन की तरह फुंफकारते हुए आश्रम में आते हुए देखा तो वे भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे । "क्रोधित नागिन का कोई भरोसा थोड़े ही है ? पता नहीं वह क्रोध में आकर कब किसे डस ले ? क्रोधित मनुष्य का विवेक पहले ही नष्ट हो जाता है इसलिए उसे भले बुरे का कोई ज्ञान नहीं रहता है । अविवेकी मनुष्य अपने ही स्वजनों तक का नुकसान कर देता है इसलिए उससे परे रहना ही अधिक उपयुक्त है । ऐसा सोचकर सभी आश्रमवासी देवयानी से थोड़ा दूर हट गये और परस्पर वार्तालाप करने लग गये । वार्तालाप का विषय देवयानी ही था । 

देवयानी अपनी कुटिया पर आ गई । उस समय शुक्राचार्य कुटिया में नहीं थे । संभवत: वे शिष्यों को अध्ययन करा रहे थे । देवयानी की क्षुधा , प्यास सब समाप्त हो गई थी । द्वेष की अग्नि इतनी तीव्र होती है जो सब कुछ लील जाती है भूख , प्यास, सुख , चैन , मुस्कुराहट, प्रीति आदि आदि । अग्नि के शांत होने पर राख के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता है । द्वेष का परिणाम अहित ही होता है । येन केन प्रकारेण उसका अहित करना जिससे द्वेष है । देवयानी शर्मिष्ठा का अहित करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर थी । वह स्वयं तो उसका अहित करने की स्थिति में नहीं थी किन्तु उसे अपने पिता की अद्भुत शक्तियों पर पूर्ण विश्वास था । वह जानती थी कि उसके पिता क्या कुछ  कर सकते हैं । उनके तेज के कारण देवलोक भी उनसे सदैव त्रस्त रहता है तो बाकी लोगों के बारे में कहना ही क्या है ? आज उसे अपने पिता की अलौकिक शक्तियों का प्रयोग करना ही होगा तभी शर्मिष्ठा से उसका प्रतिशोध पूरा होगा । यह प्रतिशोध ऐसा होगा जो युगों युगों तक याद रहेगा । 

स्त्री के पास यदि सृजन करने की अद्भुत शक्ति है तो उसके पास विध्वंस करने की अदम्य क्षमता भी है । स्त्री को यदि ईश्वर ने सृजन हेतु सौन्दर्य, कमनीयता और लालित्य प्रदान किया है तो विध्वंस करने के लिए उसे ईर्ष्या-द्वेष, क्रोध और कोप भवन भी प्रदान किया है । जब भी कभी स्त्री कुपित होती है तो वह कोप भवन का ही आश्रय लेती है । कोप भवन के उपयोग के अनेक उदाहरण मिल जायेंगे । कोप भवन ने इस जगत में विध्वंस ही किया है । कोप भवन से सृजन हो भी नहीं सकता है । सृजन के लिए प्रेम का होना अनिवार्य तत्व है जबकि कोप भवन का संबंध घृणा से है । इस कोप भवन ने इस जगत में प्रेम, ममता , संबंध , विश्वास आदि का विध्वंस ही किया है । 

देवयानी कोप भवन की इन असीमित शक्तियों से भली भांति परिचित थी इसलिए उसने इस "अमोघ अस्त्र" का इस अवसर पर प्रयोग करना उचित समझा । वह जानती थी कि स्त्री सदैव से ही पुरुष की कमजोरी रही है कभी पत्नी रूप में तो कभी पुत्री रूप में । देवयानी भी शुक्राचार्य की लाडली पुत्री थी । शुक्राचार्य को देवयानी अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थी । जिस स्त्री को ये बात पता है कि कोई उसे अपने प्राणों से भी अधिक चाहता है तो वह समय आने पर उसके वात्सल्य, प्रेम का अपने लाभ के लिए प्रयोग कर सकती है । कैकेयी जानती थी कि राजा दशरथ उसके बिना एक पल को भी जिन्दा नहीं रह सकते हैं । उसने दशरथ की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर श्रीराम जी को 14 वर्ष का वनवास दिलवा दिया था । ऐसे अनेक दृष्टांत हैं इतिहास में । देवयानी ने अद्भुत "कोप भवन" पद्धति का प्रयोग करने का विनिश्चय कर लिया । 

उसने अपने समस्त आभूषण उतार कर कुटिया में चारों ओर फेंक दिये । केश खोलकर कंधों पर बिखरा दिये । वस्त्र अस्त व्यस्त कर लिये । आंखें रो रोकर लाल कर लीं और अपना बदन निढाल कर वह एक चारपाई पर लेट गई । उसने न तो भोजन किया और न ही जल ग्रहण किया । सेविका ने उससे बहुत आग्रह किया कि वह भोजन ग्रहण करे ले किन्तु देवयानी टस से मस नहीं हुई । सेविका देवयानी का रौद्र रूप देखकर सहम गई थी । वह दौड़ी दौड़ी शुक्राचार्य के पास जा पहुंची और भरी कक्षा में जाकर अपने हाथ जोड़कर उनसे कहने लगी "धृष्टता के लिए क्षमा प्रार्थी हूं आचार्य , किन्तु विषय कुछ ऐसा ही है कि मुझे यहां कक्षा में आकर आपसे निवेदन करना पड़ रहा है । यदि आपकी अनुमति हो तो मैं कुछ कहूं" ? 
शुक्राचार्य समझ गये कि विषय गंभीर है तभी सेविका उसके पास कक्षा में चली आई है इसलिए वे कक्षा से बाहर आ गये और सेविका से कहने लगे 
"क्या बात है सेविका , आप बहुत सहमी सहमी सी लग रही हैं ? कुछ अनिष्ट हुआ है क्या" ? शुक्राचार्य के मुख पर चिंता के भाव थे । 
"जी आचार्य ! देवयानी अभी अभी कहीं से पैर पटकती हुई आई हैं । वे बहुत आवेश में प्रतीत हो रही हैं । उनके चित्त की स्थिति सामान्य नहीं लग रही है गुरुदेव । वे विक्षिप्त की तरह व्यवहार कर रही हैं । आभूषण उतार कर चारों ओर फेंक दिये हैं । केश खोलकर अपने स्कंध पर बिखरा लिये हैं । उनके वस्त्र भी अस्त व्यस्त हो गये हैं । अपने ही हाथों से वे अपने वक्ष पर प्रहार कर रही हैं । कभी केशों को नोंच रही हैं तो कभी अपने बदन पर अपने ही नाखूनों से प्रहार कर रही हैं । वे न भोजन ग्रहण कर रही हैं और न ही जल का सेवन कर रही हैं । क्रोध के कारण उनके ओष्ठ फड़क रहे हैं , भौंहे तिरछी हो गई हैं और मुख से झाग आ रहे हैं । मैं बस यही बात बताने के लिए आपके पास आई हूं आचार्य प्रवर" । सेविका ने ये सब बातें इतनी शीघ्रता से बताईं कि वह बताते बताते हांफने लग गई थी । 

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए शुक्राचार्य तुरंत कक्षा को छोड़कर सेविका के साथ साथ चल पड़े और शीघ्र ही अपनी कुटिया में आ गये । वहां उन्होंने देवयानी को चारपाई पर लेटे हुए देखा । उसके मुख से क्रंदन का स्वर निकल रहा था । सेविका ने उसकी दशा का जैसा वर्णन किया था , वास्तव में सामने उससे भी अधिक दिखाई दे रहा था शुक्राचार्य को । देवयानी की उस स्थिति को देखकर शुक्राचार्य भयभीत हो गए । ऐसी स्थिति तो कच के चले जाने पर भी नहीं हुई थी देवयानी की । शुक्राचार्य देवयानी के नजदीक पहुंचे और उसका सिर अपनी गोदी में रखकर उसे सहलाने लगे । 

पिता को अपने पास देखकर और उनके द्वारा अपना सिर सहलाये जाने पर देवयानी की रुलाई फूट पड़ी और वह जोर जोर से विलाप करने लगी । देवयानी के इस रूप का दर्शन करके शुक्राचार्य का मन व्यथित हो उठा और उनका हृदय चीत्कार करने लगा । उन्होंने देवयानी को अपने सीने से लिपटा लिया और भीगे स्वर में कहने लगे 
"क्या हुआ है पुत्री ? किसी ने कुछ कह दिया है क्या ? या किसी ने कोई धृष्टता की है ? सब कुछ मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहो पुत्री , मेरा हृदय बहुत अधिक व्यथित हो रहा है" । 

देवयानी अपने पिता का सामीप्य प्राप्त कर भावुक हो गई और उसने शुक्राचार्य को कसकर पकड़ लिया । उसका मुख अश्रुओं से भीग गया था और अब उसके अश्रु शुक्राचार्य को भी भिगोने लगे थे । एक पिता अपनी पुत्री की आंखों में आंसू नहीं देख सकता है , बाकी सब कुछ देखने की वह सामर्थ्य रखता है । शुक्राचार्य ने देवयानी के आंसू पोंछे और उसकी चिबुक पकड़कर उसका मुख अपने मुख के सम्मुख करके कहने लगे 
"आयुष्मते, जबसे तुम्हारी माता इस नश्वर संसार को छोड़कर गई हैं तबसे मैंने तुम्हें एक माता और पिता दोनों का स्नेह देने का प्रयास किया है । मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिए हर संभव प्रत्येक कार्य किये हैं । कच की मृत्यु होने पर तुम्हारे ही कहने पर मैंने उसे तीन तीन बार जीवित किया था । यहां तक कि अपने जीवन की चिंता किये बगैर उसे प्राण दान दिया था । अब ऐसी क्या बात हो गई है आत्मजे कि तुम अपने तात से अपने मन की व्यथा कह नहीं रही हो ? क्या तुम्हें अपने पिता पर विश्वास नहीं रहा या उसकी शक्तियों पर संदेह हो गया है ? जो भी बात है उसे स्पष्ट रूप से कहो सुते" । शुक्राचार्य ने बहुत ही कोमल स्वर में कहा । 

देवयानी शुक्राचार्य की बातें सुनकर थोड़ी संयत हुई और अपने आंसू पोंछती हुई चारपाई पर ही शुक्राचार्य के पास में बैठ गई । उसने शुक्राचार्य का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा 
"आप पर और आपकी शक्तियों पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है तात् । और यह धृष्टता मैं अपने इस जीवन में कभी नहीं कर सकती हूं । मुझे ज्ञात है तात् कि आपने अपनी जान की परवाह किये बिना कच को तीन तीन बार जीवन दान दिया है । मुझे आप पर गर्व है । आप मेरा अभिमान हैं तात् । मेरा जीवन केवल आपसे ही है । जिस प्रकार सूर्य देव इस धरती के समस्त जंतुओं और वनस्पतियों का अपने प्रकाश और अपनी ऊर्जा से भरण-पोषण करते हैं उसी प्रकार मैं भी आपसे ही पोषित हूं । आपने न केवल मुझ पर मेघ की भांति वात्सल्य की बरसात की है अपितु प्रकृति सदृश मुझे पाला पोषा भी है । आपने मुझे कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि मेरी माता इस दुनिया में नहीं है । आपने मुझे सब कुछ प्रदान किया है तात् । यह बात मैं भली प्रकार जानती हूं" । 
"फिर क्या बात है पुत्री जो तुम इतनी व्यथित हो रही हो ? आज से पहले मैंने तुम्हें कभी इतना व्यथित नहीं देखा है । जो भी बात हो उसे साफ साफ कहो पुत्री" । देवयानी की बातों से शुक्राचार्य को थोड़ी शांति मिली थी । 
"बात ये है तात कि यदि कोई मुझे अपशब्द कहे, मेरा अपमान करे तो मैं उसे सहन कर सकती हूं किन्तु यदि कोई आपका अपमान करे और आपको अपशब्द कहे तो मैं इसे कैसे सहन कर सकती हूं ? आप ही बताइये तात् कि क्या मैं उसे सहन कर लूं" ? देवयानी एक एक शब्द पर जोर देती हुई बोल रही थी और साथ ही वह उन शब्दों का प्रभाव जानने के लिए शुक्राचार्य के चेहरे के भाव भी पढ़ रही थी । 

क्रमश : 
श्री हरि 
16.8.23 

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2 Comments

Gunjan Kamal

16-Aug-2023 02:18 PM

👏👌

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